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ध्यान रखकर, उनके रूप, लावण्य, विलास, हास्य, जल्पन, सांकेतिक हावभाव, अंग-चालन अथवा कटाक्ष को देखने का कभी प्रयत्न न करें।
-उत्तराध्ययन (३२/१४ ) अदंसणं चेवं अपत्थणं च, अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्साऽऽरियज्माणजुग्बं, हियं सया वंभवए रयाणं॥
स्त्रियों की ओर न तो राग-वृत्ति से देखना चाहिए, न उनकी अभिलाषा या उनका विचार करना चाहिए और न उनका कीर्तन ही। ये सर्व ब्रह्मचर्य पालन के लिए तत्पर मानवों के लिए हमेशा हितरूप हैं और आर्य ध्यान साधने की योग्य भूमिका स्वरूप
-उत्तराध्ययन ( ३२/१५) कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं,
सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं माणसियं च किंचि,
तस्सन्तगं गच्छइ वीयरागो॥ स्वर्ग में भी जो कुछ शारीरिक एवं मानसिक दुःख हैं तथा इस प्रत्यक्षदृष्ट विश्व में जो भी शारीरिक और मानसिक दुःख हैं, वे सब कामभोगों के लालच से ही उत्पन्न हुए हैं। जो मनुष्य राग-द्वेष से परे है वीतरागी है, वही इन सब दुखों का अन्त कर सकता है ।
-उत्तराध्ययन (३२/१६) मादुसुदाभगिणी विय, ठूणिस्थित्तियं य पडिरूवं । इत्थिकहादिणियत्ती, ति लोयपुज्ज हवे बंभं ॥
वृद्धा, बालिका और युवती स्त्री के इन तीन प्रतिरूपों को देखकर, उन्हें माता, पुत्री और बहिनवत मानना तथा स्त्री कथा से निवृत्त होना ब्रह्मचर्य है । यह ब्रह्मचर्य त्रिलोकपूज्य है ।
-~-मूलाचार ( १/१०) बंभचेरं उत्तमतव-नियमणाण-दसण-चरित्त-सम्मत्त, विणयमूलं । ___ ब्रह्मचर्य- उत्तमतप, नियम, ज्ञान, श्रद्धा, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल हैं।
-प्रश्नव्याकरण सूत्र ( २/४) १९२ ]
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