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भग्गं पुणो घडिज्जइ कणयं कंकणयणेउरं नयरं। पुण भंग न घडिज्जइ पेम्म मुत्ताहलं जच्चं ॥ सोने के कंकण, नूपुर ओर नगर टूट जाने पर पुनः जुड़ जाते हैं, परन्तु प्रेम और विशुद्ध मुक्ताफल टूट जाने पर फिर नहीं जुड़ते ।
-वज्जालग्ग (३६/१०) सो कोवि न दीसइ सामलंगि जो घडइ विघडियं पेम्म ।
घडकप्परं च भग्गं न एइ थिय सलेहिं ॥ ऐसा कोई नहीं दिखाई देता जो टूटे प्रेम को फिर जोड़ सके। टूटा हुआ घड़ा फिर उन्हीं सांचों में नहीं आता ।
-वज्जालग्ग (३६/१५) कीरइ समुद्दतरणं पविसिज्जइ हुयवहम्मि पज्जलिए ।
आयामिज्जइ मरणं नत्थि दुलंघं सिणेहस्स॥ स्नेह के लिए. इस जगत् में कुछ भी अलंघनीय/कठिन नहीं है ; समुद्र पार किया जाता है, प्रज्वलित अग्नि में भी प्रवेश किया जाता है तथा मरण भी स्वीकार किया जाता है।
-वज्जालग्ग ( ७२/५ ) एक्काइ नवरि नेहो पयासिओ तिहुयणम्मि जोणहाए ।
जा मिज्जह झीणे ससहरम्मि वड्ढेइ वड्ढुंते ॥ तीनों लोकों में केवल अकेले चन्द्र-प्रकाश के द्वारा स्नेह व्यक्त किया जाता है, क्योंकि जो वह प्रकाश क्षीण चन्द्रमा में क्षीण होता है और बढ़ते हुए चन्द्रमा में बढ़ता है।
-वज्जालग्ग ( ७.२) एमेव कह वि कस्स वि केण वि दिठेण होइ परिओसो ।
कमलायराण रइणा कि कजं जेण वियसन्ति ।। किसी तरह किसी भी स्नेही के लिए किसी भी स्नेही के द्वारा देख लिये जाने से आनन्द होता है। इसी प्रकार सूर्य से कमल-समूहों का स्नेह के अतिरिक्त और क्या प्रयोजन, जिससे वे खिलते हैं ।
-वज्जालग्ग (७.७)
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