________________
ध्यान ही समस्त अविचारों ( दोषों ) का प्रतिक्रमण है ।
ओयं वित्तं समादाय झाणं समुपज्जइ । चित्तवृत्ति निर्मल होने पर ही ध्यान की स्थिति प्राप्त होती है । - दशाश्रुतस्कंध ( ५ / १ )
- नियमसार ( ६३ )
जं थिरमज्झवसाणं, तं झाणं ।
स्थिर अध्यवसान अर्थात् मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है ।
सुविदियजगस्सभावो, निस्संगो निब्भओ निरासो य । arrrभावियमणो, झाणंमि सुनिच्खलो होइ ॥
जो संसार-स्वरूप से सुपरिचित है, निःसंग, निर्भय तथा आशा - रहित है एवं जिसका मन वैराग्य भावना से युक्त है, वही ध्यान में भली भाँति स्थित होता है ।
- ध्यानशतक ( २ )
- ध्यानशतक ( ३४ )
जहविर संखियमिंधण-मनलो, पवण सहिओ दुयं दहइ । तह कम्मेधणममियं, खणेण झाणानलो डहर | जैसे चिर संचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि अपरिमित कर्म - ईधन को क्षण भर में भस्म कर डालती है ।
- ध्यान - शतक ( १०१ )
न कसायसमुत्थेहि य, बहिज्जर माणसेहिं दुक्खेहिं । ईसा - विलाय - लोगा - इएहि, झाणो वगय वित्तो ॥
Jain Education International 2010_03
जिसका मन ध्यान में लीन है, वह पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से पीड़ित नहीं होता ।
- ध्यान - शतक ( १०३ )
जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो । तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए
अग्गी ||
For Private & Personal Use Only
[ १५५
www.jainelibrary.org