________________
संतेहि असंतेहि य परस्स किं जंपिएहि दोसेहिं ।
अत्थो जसो न लब्भह सो वि अमित्तो कओ होइ। दूसरों के विद्यमान अथवा अविद्यमान दोषों को कहने से क्या लाभ ? न तो अर्थ मिलता है और न यश । अपितु उसको भी शत्रु बना लिया जाता है ।
-वजालग्ग (८/२) कयपावोवि मणुस्सो, आलोइअ निदिअय गुरुसगासे । होइ अइरेगलहुओ, ओहरिअभरुन्ध भारवहो । जिस प्रकार बोझा उतर जाने पर भारवाहक के सिर पर भार कम हो जाता है उसी प्रकार गुरु के सामने पाप की आलोचना तथा आत्मा की साक्षी से निन्दा करने पर मनुष्य के पाप अत्यन्त हल्के हो जाते हैं।
-वंदित्तुसूत्र (४०) न यसो भावो विजइ, अदोसवं जो अनिययस्स । पुरुषार्थ-हीन व्यक्ति के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं, जो कि पूर्ण निर्दोष हो।
-बृहत्कल्पभाष्य (१२३८) अहि अत्थं निवारितो, न दोसं वत्तुमरिहसि । बुराई को दूर करने की दृष्टि से यदि आलोचना की जाए तो कोई दोष नहीं है ।
-उत्तराध्ययन-नियुक्ति (२७६) तस्स य दोस कहंता, भग्गा भग्गत्तणं दिति । मिथ्या-दोषारोपण करनेवाला स्वयं भी भ्रष्ट-पतित होता है और दूसरों को भी भ्रष्ट-पतित करता है।
-दर्शन-पाहुड़ (६) जाण असमेहि विहिया जाअइ णिन्दा समा सलाहावि । णिन्दा वि तेहिं विहिआ ण ताण मण्णे किलामेइ ॥
दुर्जनों द्वारा कथित निंदा सजनों को लगेगी अथवा नहीं, कहा नहीं जा सकता, किन्तु वह निन्दा सजनों की निन्दा से उत्पन्न दोष के उन दुर्जनों को ही घटित हो जाती है।
--गउड़वहो (७५) १५१ ]
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org