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प्रायश्चित
जो पल्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्तु परिणाम
आलोयणमिदि जाणह। अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है।
-नियमसार (१०६)
कोहादि-सगम्भाव-क्खयपहुदि-भावणाए णिग्गहणं ।
पायच्छित्तं भणिदं, णियगुणचिंता य णिच्छयदो॥ क्रोध आदि स्वकीय भावों के क्षय या उपशम आदि की भावना करना तथा निज गुणों का चिंतन करना निश्चय से प्रायश्चित है ।
-नियमसार (११४)
तं पिहु सपडिक्कमणं, सप्परिआवं सउत्तर गुणं च। खिप्पं उवसामेई, वाहि व्व सुसिक्खिओ विजो॥ जिस प्रकार सुशिक्षित अनुभवी ( कुशल ) वैद्य व्याधि को शीघ्र शान्त कर देता है वैसे ही मनुष्य उस अल्प कर्म-बन्ध को भी प्रतिक्रमण और प्रायश्चित रूप उत्तर गुण द्वारा जल्दी नाश कर देता है।
-वंदित्तुसूत्र ( ३७),
आलोयणारि हाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं ।
जे भिक्खू वहई सम्म, पायच्छित्तं तमाहियं ॥ अपने दोषों के शोधनार्थ जो भिक्षु मूढ के समक्ष दोषों की निष्कपट आलोचना करता है, और गुरु प्रदत्त दण्ड को सविनय अंगीकार करता है अथवा प्रायश्चित के शास्त्रोक्त दश भेदों का सम्यक्तया पालन करता है उसको प्रायश्चित नामक तप होता है।
-उत्तराध्ययन ( ३०/३१) १७६ ।
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