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पाइयकव्वम्मि रसो जो जायइ तह य छेयभणिएहि ।
उदयस्स य वासियसीयलस्स तित्तिं ण वञ्चामो॥ प्राकृत-काव्य में तथा विदग्ध-भणिति ( द्वयर्थक-व्यंग्योक्ति ) में जो रस होता है, उससे तृप्ति नहीं होती है, जैसे सुवासित और शीतल जल से मन तृप्त नहीं होता है।
-वजालग्ग (३/३) संते पाइयकवे को सक्कइ सक्कयं पढिउं । प्राकृत-काव्य के रहते हुए कौन संस्कृत पढ़ने का प्रयत्न करेगा ? अर्थात नहीं पड़ेगा।
-वजालग्ग (३/११) उज्झउ सक्कयकव्वं, सक्कयकव्वं च निम्मियं जेण ।
वंसहरं व पलित्तं, तडयडतहत्तणं कुणइ ।। संस्कृत-काव्य को तथा जिसने संस्कृत-काव्य बनाया है उनको छोड़ो, उनका नाम मत लो, क्योंकि वह संस्कृत-भाषा जलते हुए बाँस के घर की तरह 'तड़-तड़-तट्ट' शब्द को करती है, अर्थात् श्रुतिकटु है ।
-वजालग्ग
पाइयकन्चस नमो, पाइयकव्वं च निम्मियं जेण ।
ताह चिय पणमामो, पढिऊण य जे वि याणंति ।। प्राकृत-काव्य को नमस्कार है, जिन्होंने प्राकृत-काव्य की रचना की है, उन्हें नमस्कार है । जो पढ़कर उन्हें जान लेते है, समझ लेते हैं, उन्हें भी हम प्रणाम करते है।
-वजालग्ग (३/१३) गूढत्थदेसिएहियं सुललियं वण्णेहिं विरइयं रम्म ।
पाययकव्वं लोए कस्स न हिययं सुहावेइ ॥ गढ़ार्थक देशी शब्दों से रहित तथा सुललित वर्गों के द्वारा रचित सुन्दर प्राकृत-काव्य किसके हृदय को सुखकर नहीं है ? अर्थाद सभी को सुब-दायक है।
-शानपञ्चमीकथा (१४)
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