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निन्दा सगणे व परगणे वा परपरिवादं च मा करेज्जाह । अच्चा सादण विरदा होह सदा वज्जभीरूय ॥
अपने गण में या अन्य गण में तुम्हें अन्य किसी की निन्दा करना कदापि योग्य नहीं है। पर की विराधना से विरक्त होकर सदा पापों से पृथक होना चाहिए।
-भगवती-आराधना (३६६) दळूण अण्णदोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ ।
रक्खइ य सयं दोसं व तयं जणजंपणभएण ॥ सत्पुरुष दूसरों का दोष देखकर उसको प्रकट नहीं करते हैं, प्रत्युत लोकनिन्दा के भय से उनके दोषों को अपने दोषों के समान छिपाते हैं। दूसरों का दोष देखकर वे स्वयं लज्जित हो जाते हैं।
-भगवती-आराधना (३७२) अप्पाणं जो जिंदा गुणवंताणं करेइ बहुमाणं । जो मनुष्य अपनी निन्दा करता है और गुणवन्तों की प्रशंसा करता है, उसके कर्म-निर्जरा होती है ।
__-कार्तिकेयानुप्रेक्षा (११२) जइइच्छह गुरुयत्तं, तिहुयणममम्मि अप्पणो नियमा।
ता सन्वपयत्तेणं, परदोसविवजणं कुणह ॥ यदि तुम लोकत्रय में अपनी बड़ाई चाहते हो तो सर्वप्रयत्न. से परनिंदा का कार्य पूर्णरूपेण त्याग दो।
-गुणानुरागकुलकम् (१२) परनिन्दा परिहारो, अप्पसंसा अत्तणोगुणाणं च । परनिन्दा को सर्वथा त्याग कर देना चाहिये और अपने गुणों की प्रशंसा से दूर रहना चाहिए।
-पुण्यकुलकम् (७)
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