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अच्छे कर्म का फल अच्छा होता हैं । बुरे कर्म का फल बुरा होता है । - औपपातिकसूत्र (५६)
सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावंति हवदि जीवस्स । आत्मा का शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है । - पंचास्तिकाय ( १३२ )
जस्स ण विजदिरागो, दोस्रो मोहो व सव्व दव्वेसु । सर्वादि सुहं असुह, समसुह दुक्खस्स भिक्खुस्स ॥
जिस साधक का किसी भी द्रव्य के प्रति राग, द्वेष और मोह नहीं है, जो सुख-दुःख में समभाव रखता है, उसे न पुण्य का आश्रव होता है और न पाप का ।
संसारसं तई मूलं पुण्णं पावं पुरेकडं । संसार-परम्परा का मूल पूर्वकृत पुण्य और पाप है ।
- इसिभा सियाई ( ९/२) सोवणियं पि णिलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं । बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कद कम्मं ॥ जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, उसी प्रकार सोने की बेड़ी भी बाँधती है । इसलिए परमार्थतः शुभ व अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म जीव के लिए बन्धनकारी है ।
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पार्वति पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ
- पंचास्तिकाय ( १४२ )
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- समयसार (१४६ )
भणियमण्णेसु । परिणाम पाप है ।
वरं वयतवेहिं सग्गो, मा दुक्खं होउ निरह इयरेहिं ।
छायातचट्ठियाणं,
पडिवालं ताण
गुरुमेयं ॥
पाप कर्मों के द्वारा नरक आदिक के दुःख भोगने की बजाय तो व्रत - तप
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- प्रवचनसार (१८१ )
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