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मा कस्स वि कुण णिदं होजसु गुण-गेण्हणुजओ णिययं । किसी की निन्दा मत करो, गुणों को ग्रहण करने में उद्यम करो।
-कुवलयमाला ( अनुच्छेद ८५) किच्चा परस्स णिन्दं जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज ।
सो इच्छदि आरोग्गं परम्मि कडुओसहे पीए । जो व्यक्ति दूसरों की निन्दाकर अपने को गुणवानों में स्थापित करने की इच्छा करता है, वह दूसरों के द्वारा कड़वी औषधी पी लेने पर स्वयं आरोग्य चाहता है।
-अर्हत्प्रवचन (९/१२)
निरभिमान जो ण य कुन्वदि गव्वं, पुत्तकलत्ताइसम्वअत्थेसु। उवसमभावे भवदि, अप्पाणं मुणदि तिणमेत्तं ॥ जो पुत्र-कलत्रादि किसी का भी गर्व नहीं करता और अपने को तृण के समान मानता है, उसे उपशम-भाव होता है ।
_ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३१३) समणस्स जणस्स पिओ णरो अमाणी सदा हवदि लोए । णाणं जसं च अत्थं लभदि सकजं व साहेदि ।
अभिमान से रहित मनुष्य संसार में स्वजन और जनसामान्य सभी को सदा प्रिय होता है और ज्ञान, यश, धन आदि को प्राप्त करता है तथा अपने कार्य को सिद्ध कर लेता है।
-अर्हत्प्रवचन (७/३७) रिद्धीसु होह पणया जइ इच्छह अत्तणो लच्छी। यदि अपनी शोभा चाहते हो तो सम्पत्ति प्राप्त होने पर नन बनो।
-कुवलयमाला ( अनुच्छेद ८५)
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