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पुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व, होऊण सुइ-समायरो।
साया समाहिजुत्तो, सुहासणत्यो सुइसरीरो॥ पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख होकर बैठनेवाला शुद्ध आचार तथा पवित्र देहवाला ध्याता सुखासन स्थित हो समाधि में लीन होता है ।
-पासणाह-चरियं (५१) अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं। आत्मा में आत्मा का रमण करना ही परम ध्यान है ।
--द्रव्यसंग्रह (५६) विमलयर झाणहुयवह-सिहहिं णिद्दड्ढ कम्मवणा।
उत्तम साधक निर्मलतर ध्यान रूपी अग्नि शिखा से कर्म-वन को भस्म कर देता है।
-पंच-संग्रह ( १/२६) वज्जिय-सयल-वियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरु'धंतो। जं चिंतदि साणंदे तं धम्म उत्तमं ज्झाणं ।। सकल विकल्पों को छोड़ कर और आत्म-स्वरूप में मन को रोककर आनन्द-सहित जो चिंतन होता है वही धर्म उत्तम ध्यान है ।
–कात्र्तिकेयानुप्रेक्षा (४८२) जेण सुरासुरनाहा, हहा अणाहुन्य वाहिया सो वि ।
अज्झप्पझाण जलणे, पयाइ पयंगत्तणं कामो॥ आहा ! जिसने सुरेन्द्रों और असुरेन्द्रों को अनाथ के रूप में पीड़ित किया है, वह प्रबल काम-वासना अध्यात्म-ध्यान की अग्नि में पतंग-कीट के समान भस्म हो जाती है।
-आत्मावबोधकुलकम् (८) जं बद्धपि न चिट्ठइ, वारिज्जतं वि सरइ असेसे।
झाणबलेण तं पिहु, सममेव विलिज्जइ चित्तं ॥ जो बाँधने के पश्चात् भी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता और चारों तरफ घूमता ही रहता है, वह चपल मन भी आत्म-ध्यान के द्वारा ही शांत होता है।
-आत्मावबोधकुलकम् (६)
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