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जे जे गुणिणो जे जे वि माणिणो जे वियड्ढसंमाणा।
दालिह रे वियक्खण ताण तुमं साणुराओ सि॥ दारिद्रय । तुम बड़े विचक्षण (विद्वान् ) हो, क्योंकि जितने गुणवान्, स्वाभिमानी और विदग्धों में सम्मानित लोग हैं, उन पर अनुरक्त रहते हो ।
-वजालग्ग (१४३) जे भग्गा विहवसमीरणेण वंकं ठवंति पयमग्गं ।
ते नूणं दालिद्दोसहेण जइ पंजलिज्जंति ॥ जो वैभवरूपी वात-व्याधि से भग्न होकर टेढ़ा पैर रखकर चलते हैं, वे निश्चय ही दारिद्रय-रूपी महौषध से सीधे हो जाते हैं।
-वजालग्ग (१४/५) धम्मत्थकामरहिया जे दियहा निद्धणाण चोलीणा ।
जइ ताइ गणेइ विही गणेउ न हु एरिसं जुत्तं ॥ निर्धनों के जो दिन धर्म, अर्थ और काम के अभाव में बीत चुके हैं, यदि विधाता उन्हें भी आयु के भीतर गिनता है, तो गिन ले परन्तु यह उचित नहीं है।
-~-वजालग्ग ( १४/८) संकुयइ संकुयंते वियसइ वियसंतयम्मि सूरम्मि । सिसिरे रोरकुडुबं पंकयलीलं समुन्वहइ ॥ शिशिर में दरिद्र-कुटुम्ब पंकजों की लीला धारण कर लेता है। वह सूर्य के संकुचित होने पर संकुचित और उसके विकसित होने पर विकमित होता है ।
-वजालग्ग (१४/९)
दुःख न य संसारम्मि सुई, जाइजरा मरण दुक्ख गहियस्स ।
इस संसार में जन्म, जरा और मरण के दुःख से ग्रस्त जीव को कोई सुख नहीं है।
-सावयपण्णत्ति (३६०)
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