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हयदुज्जणस्स वयणं निरंतरं बहलकज्जलच्छायं । संकुद्ध भिअडिजुयं कया विन हु निम्मलं दिट्ठ ॥
जिसकी कान्ति निरन्तर घने काजल के समान मलिन रहती है, जिसकी दोनों भौंहें चढ़ी रहती हैं, ऐसे दुष्ट का मुख कभी भी निर्मल नहीं दिखाई देता ।
- वज्जालग्ग ( ५ / १ )
एयं खिय बहुलाहों जीविज्जइ जं खलाण मज्झम्मि । लाहो जं न डसिज्जइ भुयंग परिवेढिए चलणे ॥ खलों - दुर्जनों के बीच जीवित रहे, यही बहुत बड़ा लाभ है। पैर में लिपटा साँप यदि नहीं काटता तो यही बहुत है ।
दुर्जन
पिट्ठिमलाई । बीहेर ॥
- वज्जालग्ग ( ५ / ११ )
न सहइ अभत्थणियं असइगयाणं पि दट्ठूण भासुरमुहं खलसीहं को न दुष्टजन सिंह के समान होते हैं । उनसे कौन नहीं डरता ? सिंह मेघों की गर्जना नहीं सह सकता तो दुष्ट खल अभ्यर्थना को । सिंह हाथी का भी पृष्ठ- मांस खा जाता है तो दुष्ट परोक्ष में लोगों की निन्दा करता है । सिंह का मुख नुकीले दाँतों के कारण भयानक होता है तो खल-दुष्ट का मुख देखने में ही भयानक लगता है ।
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मा वच्चह वीसंभं पमुहे बहुकूडकवडभरियाणं । निव्वत्तियकज्जपरं मुहाण सुणयाण व खलाणं ॥
जिस प्रकार कुत्ते अपना कार्य समाप्त हो जाने पर मुंह फेर लेते हैं, उसी प्रकार अत्यन्त छल-कपट से परिपूर्ण तथा अपना काम निकल जाने पर मुंह फेर लेने वाले खलों (दुष्ट-पुरुषों ) के समक्ष विश्वास पूर्वक मत जाओ ।
- वज्जालग्ग (५/१३)
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- वज्जालग्ग (५/१२)
जेहिं खिय उन्भविया जाण पसाएण निग्गयपयावा । समरा डहंति विंझं खलाण मग्गो च्चिय अउव्वो ।
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