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नाणेण य करणेण य दोहि वि दुक्खक्खयं होइ। ज्ञान और तदनुसार क्रिया-इन दोनों की साधना से ही दुःख का क्षय होता है।
-मरणसमाधि ( १४७) पढमं नाणं तओ दया। पहले ज्ञान अनन्तर तदनुसार दया-आचरण होना चाहिये ।
- दशवैकालिक (४/१०) ण हि आगमेण सिझदि, सद्दहणं जदि वि णस्थि अत्थेसु। सदहमाणो अत्थे, असंजदो वा ण णिव्वादि
तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा, रुचि, प्रेम या भक्ति के बिना केवल शास्त्र-ज्ञान से मुक्ति नहीं होती और श्रद्धा या भक्ति हो जाने पर भी यदि संयम न पाला जाय अर्थात प्रवृत्ति व निवृत्तिरूप शास्त्रविहित कर्म न किया जाय तो भी निर्वाण प्राप्त नहीं होता है ।
-प्रवचनसार ( २३७) आहेसु विज्जाचरणं पमोक्खं । ज्ञान और आचरण से ही मुक्ति प्राप्त होती है ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१२/११) जइ नत्थि नाणचरणं, दिक्खा हु निरस्थिगा तस्स। यदि ज्ञान और तदनुसार आचरण नहीं है तो उस साधक की दीक्षा सार्थक नहीं है।
___-व्यवहारभाष्य (७/२१५) जण्णाणवसं किरिया, मोक्खणिमित्तं । जो क्रिया ज्ञानपूर्वक होती है, वही मोक्ष का कारण होती है।
-बारस अणुवेक्खा (५७) ण हु सासणभत्ती मेत्तएण, सिद्धांतजाणओ होइ।
णवि जाणओ वि णियमा, पण्णवणाणिच्छि ओणामं ॥ मात्र आगम की भक्ति के बल पर ही कोई सिद्धान्त को जाननेवाला
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