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ज्ञान पाँच प्रकार का है-आभिनिबोधक या मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान ।
-उत्तराध्ययन ( २८/४) णाणुज्जोवो जोवो णाणुज्जोवस्स णत्थि पडियादो। दीवेइ खेत्तमप्पं सूरो णाणं जगमसेसं ॥ ज्ञान का प्रकाश ही सच्चा प्रकाश है, क्योंकि ज्ञान के प्रकाश की कोई रुकावट नहीं है। सूर्य थोड़े क्षेत्र को प्रकाशित करता है, किन्तु ज्ञान पूरे संसार को।
-अर्हत्प्रवचन ( १६/४७ ) सोहेइ सुहावेइ अ उवहुज्जन्तो लवो पि लच्छीए ।
देवी सरस्सई उण असमग्गा किं पि विणडे ॥ लक्ष्मी की थोड़ी मात्रा भी उपभोग की जाती हुई शोभती है तथा सुखी करती है, किन्तु किंचित भी अपूर्ण देवी सरस्वती अर्थात अधूरी विद्या उपहास कराती है।
-गउडवहो (६८) विन्नाण समो य बंधवो नत्थि । विज्ञान के समान बन्धु नहीं है ।
-वज्जालग्ग ( ३६/६०/१)
ज्ञान-कर्म-योग चरणगुणविष्पहीणी, बुडुइ सुबहुं पि जाणतो। जो व्यक्ति चारित्र- गुण से रहित है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार-समुद्र में डूब जाता है ।।
-आवश्यकनियुक्ति (६७) सुबुहपि सुयमहीयं किं काही चरणविप्पहीणस्स ? अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स कोडी वि ? शास्त्रों का ढेर-सा अध्ययन भी चरित्र-हीन के लिए किस काम का !
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