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विसयकसाय चिणिग्गहभावं, काऊण झाणसज्झाए। जो भावइ अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ॥
इन्द्रिय-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्मा को भावित करता है, उसी के तप-धर्म होता है।
-बारह अनुप्रेक्षा (७७) तवसा ध्रुयकम्मंसे, सिद्ध हवह सासए । तपश्चर्या द्वारा समग्र कर्मों को दूर करनेवाला मनुष्य शाश्वत, सिद्ध हो जाता है।
-उत्तराध्ययन (३/२०) सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो,
न दीसई जाइविसेस कोइ। तप की विशेषता-महिमा तो प्रत्यक्ष में दिखलाई पड़ती है, किन्तु जाति की कोई विशेषता नहीं दीखती है ।
-उत्तराध्ययन ( १२/३७) तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्म एहा संजमजोग सन्ती, होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ॥
तप ज्योति है। जीव-आत्मा ज्योति का स्थान है। मन, वचन और काया का योग कड़छी है। शरीर कण्डे हैं। कर्म ईन्धन है। संयम की प्रवृत्ति शान्तिपाठ है। ऋषि इस तरह का प्रशस्त यज्ञ करते हैं।
-उत्तराध्ययन (१२/४) असिधारागमणं चेव, दुक्कर चरिउ तवो। तप का आचरण तलवार की धार पर चलने-जैसा दुष्कर है ।
-उत्तराध्ययन ( १६/३८) । सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरब्भन्तरो तहा। सप दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर ।
-उत्तराध्ययन (३०/७)
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