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अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो । अहिंसा का पूर्ण दर्शन यही है कि स्वयं का सब प्राणियों के प्रति संयम रखना।
-दशवकालिक (६/८) जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा ।
ते जाणमजाणं वा, न हणे णो वि घायए ॥ विश्व में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनका जानते हुए या अनजान में, न स्वयं हनन करे और न कराए ।
-दशवैकालिक ( ६/६) सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउ न मरिज्जि। सारे जीव जीना चाहते हैं। मरने की किसी की भी इच्छा नहीं है ।
-दशवेकालिक (६/१०) उच्चालियंमि पाए, ईरियासमियस्स संकमाए। वावज्जेज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥ न य तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमोवि देसिओसमए ।
अणवज्जो उ पओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ॥ कभी-कभी ईर्या-समित सज्जन के पैर-तले कीट-पतंग आदि क्षुद्र जीव आ जाते हैं और दबकर मर भी जाते हैं, किन्तु उक्त हिंसा के लिए उस सज्जन को सिद्धान्त ने अल्पांश भी कम का बंध नहीं बताया है, क्योंकि वह अन्तस् में सर्वतोभावेन उस हिंसा-व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण निष्पापयुक्त है।
-ओघनियुक्ति (७४८-४६) जो य पमत्तो पुरिसो, तस्स य जोगं पडुच्च जे सत्ता। वावज्जते नियमा, तेसि सो हिंसओ होइ ॥ जे विन वावज्जती, नियमा तेसि पि हिंसओ सोउ । सावज्जो उ पओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ॥ जो प्रमत्त पुरुष है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी जीव मर जाते हैं,
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