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जीवो परिणमदि जदा, सुद्देण असुहेणव सुहो असुहो । तदा सुद्धो, हवदि हि परिणाम सम्भावो ॥
सुद्ध
जब आत्मा शुभ या अशुभ भाव में परिणत होता है, तब वह शुभ अथवा अशुभ हो जाता है और जब शुद्ध भाव में परिणत होता है, तब वह शुद्ध हो जाता है, अर्थात् आत्मा परिणमन-स्वभाव-युक्त है ।
- प्रवचनसार ( १/६ )
आत्मा ही आत्मा को जानता है ।
अप्पा जाणइ अप्पा ।
आदाणापमाणं णेयं लोयालोयं, तम्हा णाणं तु आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है और है । इस दृष्टि से ज्ञान सर्वव्यापी हो जाता है ।
- सार्थ पोसह सज्झाय ( २२ )
णाणं णेयप्पमाण मुद्दिट्ठ |
सव्वगयं ॥
ज्ञेय लोकालोक प्रमाण
- प्रवचनसार ( १/२३ )
किभया
पाणा ?
दुक्खभया
पाणा ।
दुक्खे केण कडे ? जीवेणं कडे पमाएणं ।
प्राणी किससे भय पाते हैं ? दुःख से ।
दुःख किसने किया है ? स्वयं आत्मा ने, अपनी ही भूल से ।
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बाले पापेहि
अज्ञानी आत्मा पाप करने पर भी उस
उवनइ वा, विगमेइ वा, ध्रुवेइ वा ।
आत्मा उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और मूल में ज्यों की त्यों रहती है । - स्थानांग (१०)
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- स्थानांग (३/२)
मिज्जती
पर अहंकार करता है ।
एगस्स गती य आगती ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/२/२/२१ )
आत्मा परलोक में अकेला ही गमन-आगमन करता है ।
- सूत्रकृताङ्ग ( १/२/३/१७ )
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