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किं तुमंधो सि किंवा सि धत्तू रिओ | अहव किं सन्निवारण आऊरिओ |
अमयसमधम्म जं विस व अवमन्नसे । विसयविस विसम अमियं व बहु मन्नसे n
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हे मनुष्य ! क्या तूं अन्धा बन गया है ? या क्या तूं ने धतूरा -पान किया है ? अथवा क्या तूं सन्निपात रोग से पागल बन गया है कि जिससे अमृत समान धर्म को तूं विषवत् तिरस्कृत करता है ! और भवोभव परिभ्रमण कराने वाले विषय रूपी विष को अमृत के समान पी रहा है !
तं जइ इच्छसि गंतु, तीरं तो तव संजमभंड,
- इन्द्रियपराजयशतक ( ७४ )
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भवसायरस्स घोरस्स । सुविहिय ! गिण्हा हि तुरंतो ॥
हे सुविहित ! यदि तु घोर भवसमुद्र के पार तट पर जाना चाहता है, तो शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर ।
एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरगं । आत्मा को देह से पृथक् जानकर भोगलिप्त देह को धुन डालो ।
- मरण - समाधि ( २०२ )
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- आचारांग ( १/४/३ )
से जाणमजाणं वा कट्टु आहम्मिश्रं पयं । संवरे विप्पमप्पाणं, बीयं तं न समायरे || जान या अजान में कोई अधर्म कार्य हो जाय तो तुरन्त हटा लेना चाहिए, फिर दूसरी बार वह कार्य न किया जाय ।
अपनी आत्मा को उससे
- दशवेकालिक ( ८/३१ )
मा मा मारेसु जोए मा परिहव सजणे करेसु दयं । मा होह कोवणा भो खलेसु मित्तिं च मा कुणह ॥
हे मानव ! जीवों को मत मारो, उन पर दया करो, सज्जनों को अपमानित मत करो, क्रोधी मत होओ और दुष्टों से मित्रता न करो ।
- कुवलयमाला ( अनुच्छेद ८५ )
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