________________
खामेमि सम्वे जीवे, सब्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सन्च भूएसु, वेर मज्झं न केणइ ॥ मैं समस्त जीवों से क्षमा माँगता हूँ और सब जीव मुझे क्षमा करें। सब जीवों के प्रति मेरा मैत्री-भाव है, मेरा किसी भी जीव के साथ वैर-विरोध नहीं है।
-वंदित्तु सूत्र (४८) आयरिय उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल-गणेय । जे मे केइ कसाया, सव्वे तिवेहेण खामेमि ॥
आचार्य, उपाध्याय, शिष्यगण और सधर्मी बन्धुओं तथा कुल और गणों आदि सभी के प्रति जो क्रोधादि कषाय-युक्त व्यवहार किया हो, उसके लिए मन, वचन और काया से क्षमा मांगता हूँ।
-आयरियउवज्झाए सूत्र (१). सव्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अंजलिं करिअ सीसे । सवस्स खमावइत्ता खमामि, सधस्स अहियं पि॥
हे भगवन् ! मैं अञ्जलि-सहित नतमस्तक होकर श्रमण-संघ से क्षमायाचना करता हूँ, वे मेरे अपराधों को क्षमा करें ।
-आयरियउवज्झाए सूत्र (२)
क्षमाशील कोहेण जो ण तप्पदि, सुर-णर तिरिएहि कीरमाणे वि। उवसग्गे वि रउद्दे, तस्स खमा णिम्मला होदि ॥
जो देव, मानव तथा तिर्यञ्च पशुओं के द्वारा घोर, भयानक उपसर्ग पहुँचाने पर भी क्रोध से तप्त नहीं होता, उसी के निर्मल क्षमा होती है ।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३६४) कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंग जदि हवेदि सक्खादं ।
ण कुणदि किंचि वि कोहं तस्स खमा होदि धम्मोत्ति ॥ .. क्रोध के उत्पन्न होने के साक्षात् बाह्य कारणों के मिलने पर भी जो जरासा भी क्रोध नहीं करता है, वह क्षमाधर्म का आराधक होता है ।
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org