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मैत्री-भाव उत्पन्न करता है । मैत्री-भाव को प्राप्त हुआ जीव भावना को विशुद्ध बनाकर निर्भय हो जाता है।
-उत्तराध्ययन ( २६/१७) खमा सव्व साहूणं । क्षमा सभी साधुओं को होनी चाहिये ।
-सार्थपोसहसज्झायसूत्र (३)
क्षमापना
जइ किंचि पमाएणं, न सुटु मे वट्टियं मए पुधि । तं मे खामेमि अहं, निसल्लो निक्कसाओ अ॥
अल्पतम प्रमाद के वश भी यदि मैंने आपके प्रति अच्छा व्यवहार नहीं किया हो तो मैं निःशल्य और कषाय-रहित होकर आपसे क्षमा याचना करता हूँ।
–बृहत्कल्प-भाष्य (१३६८) सव्वस्स जीवरासिस्स, भावओ धम्मनिहिअनिअचित्तो। सव्वे खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि॥
धर्म-प्रवृत्ति में अन्तःकरणपूर्वक स्थित हुआ मैं अपने से हुए समस्त अपराधों के लिए सर्व जीवों से क्षमा माँगता हूँ और सब जीवों द्वारा मेरे प्रति किये गये अपराधों को क्षमा करता हूँ।
-आयरियउवज्झाए सूत्र (३) जं जं मणेणं बद्ध, जं जं वायाए भासियं पावं । जं जं कारण कयं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स ।
जिन-जिन पाप-प्रवृत्तियों का मैंने मन में संकल्प किया हो, जो-जो पापप्रवृत्तियाँ मैंने वचन से कही हों और जो-जो पाप-प्रवृत्तियाँ मैंने शरीर से की हों, मेरी वे सभी पाप-प्रवृत्तियाँ निष्फन हों। मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों।
-आवश्यकसूत्र
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