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विसयासत्तो कज्ज अकज्जं वा ण याणति । विषयासक्त को कर्त्तव्य-अकर्तव्य का परिज्ञान नहीं रहता है ।
-आचाराङ्ग चूर्णि ( १/२/४ ) विसयरसासवमत्तो, जुत्ताजुत्तं न याणई जीवो। विषयरस रूप मदिरा से मदोन्मत्त बना मनुष्य उचित-अनुचित को नहीं जान सकता है।
- इन्द्रियपराजयशतक (१०) न लहइ ज हा लिहतो, मुहल्लिअं अद्विअं जहा सुणओ। सोसइ तालुअरसि, विलिहंतो मन्नए सुक्खं ॥ महिलाणकायसेवी, न लहइ किंचिवि सुहं तहा पुरिसो। सो मन्नए वराओ, सयकायपरिस्समं सुक्खं ॥
जिस प्रकार कुत्ता मुख में पकड़ी हड्डी को जीभ से चाटते हुए भी कुछ उपलब्ध नहीं कर सकता, मात्र गले का शोषण करता है और हड्डी घिसते निकले हुए अपने तालु के रक्त को चाटता हुआ सुख की अनुभूति करता है, उसी प्रकार स्त्रियों के शरीर का भोग भोगनेवाला पुरुष भी उससे सुख की अनुभूति करता है, लेकिन वस्तुतः वह सुख प्राप्त नहीं होता मात्र काम के त्रास से पराजित वह स्वयं के शारीरिक परिश्रम को ही सुखरूप मानता है।
-इन्द्रियपराजयशतक (३३-३४ ) नागो जहा पंकजलावसन्नो, दह्र थलं नाभिसमेइ तीरं । एवं जिआ कामगुणेसु गिद्धा, सुधम्ममग्गे न रया हवंति ॥
जैसे कीचड़-युक्त जल में रहा हाथी तट की भूमि को देखते हुए भी तट पर नहीं आ सकता वेसे ही काम-विषय में आसक्त बना मनुष्य समझते हुए भी धर्ममार्ग में लीन नहीं हो सकता।
-इन्द्रियपराजयशतक (५६) जह चिट्टपुंजखुत्तो, किमी सुहं मन्नए सयाकालं ।
तह विसयासुइरत्तो, जीवो वि मुणइ सुहं मूढ़ो। जिस तरह विष्टा-समूह में फंसा या आसक्त बना कीड़ा सदैव उसी में
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