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जइ वणवासमित्तेणं, नाणी जाव तवस्सी भवइ,
तेण सीह बग्घादयो वि यदि कोई वन में निवास करने मात्र से ज्ञानी और तपस्वी हो जाता है तो फिर सिंह, बाघ आदि भी ज्ञानी, तपस्वी हो सकते हैं ।
-आचाराङ्ग-णि ( १/७/१)
किं माहणा ! जोइसमारभन्ता, उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा ? जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुदिह्र कुसला वयन्ति ॥
ब्राह्मणों ! अग्नि का समारम्भ ( यज्ञ ) करते हुए क्या तुम बाहर से-जल से शुद्धि करना चाहते हो ? जो बाहर से शुद्धि को खोजते हैं, उन्हें कुशल पुरुष सुदृष्ट-सम्यग् द्रष्टा नहीं कहते हैं ।
--उत्तराध्ययन ( १२/३८)
धाम्मिय धम्मो सुन्वइ दाणेण तवेण तित्थजत्ताए । तरुणतरुपल्लवुल्लुरणेण धम्मो कहिं दिट्ठो॥
ओ धार्मिक ! दान, तप और तीर्थ-यात्रा से धर्म होता है, यह तो सुना जाता है, पर तरुण वृक्षों के पत्तों को तोड़ने से उत्पन्न होनेवाला धर्म तुमने कहाँ देखा?
-वज्जालग्ग (५४/१)
क्रोध
पवयराइसमाणं कोहं अणुपविढे जीवे ।
कालं करेइ णेरइएसु, उववज्जति ॥ उग्र क्रोध, जो पर्वत की दरार के समान जीवन में कभी नहीं मिटता है, वह मरने पर आत्मा को नरकगति की ओर ले जाता है ।
-स्थानांग (४/२) ६८ ]
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