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धम्मम्मि कुणह वसणं राओ सत्थेसु णिउणभणिएसु ।
पुणरुत्तं च कलासु ता गणणिजो सुयणमज्झे ।। शास्त्रों में विद्वानों के वचनों में एवं धर्म का अभ्यास करो एवं कलाओं का बार-बार पुनरावर्तन करो, तब सज्जनों के बीच में गिनने योग्य होवोगे।
–कुवलयमाला ( अनुच्छेद ८५ ) थेवं व थेवं धम्मं करेह जइ ता बहुं न सक्केह । पेच्छह महानईयो बिन्दुहिं समुद्दभूयाओ॥ यदि अधिक न कर सको तो थोड़ा-थोड़ा ही धर्म करो। बूंद-बूंद से समुद्र बन जानेवाली महानदियों को देखो।
-अर्हत्प्रवचन ( १६/१४)
उन्मार्गी
उम्मग्गठिओ इक्कोऽवि, नासर भव्वसत्त संघाए। तंमग्गमणुसरंते, जह कुतारो नरो होइ । जिसको भली प्रकार तैरना नहीं आता जैसे वह स्वयं डूबता है और साथ में अपने साथियों को भी ले डूबता है उसी प्रकार उलटे मार्ग पर चलता हुआ एक व्यक्ति भी कई को ले डूबता है ।
---- गच्छाचार-प्रकीर्णक ( ३. )
उपदेश उवएस सहस्सेहि, बोहिज्जंतो ण बुज्झई कोई । किसी-किसी मनुष्य को हजारों बार उपदेश देने पर भी बोध नहीं होता है ।
-सार्थपोसहसज्झायसूत्र (३०) ण वि सक्कमणज्जो, अणज्जभासं विणा उ गाहेउं । अनार्य पुरुष को अनार्य भाषा के बिना समझाना सम्भव नहीं है ।
-समयसार (२) ७६ ]
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