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सव्वत्थ वि पिय-वयणं, दुव्वयणे वि खम- करणं । मंद कसायाण दिट्ठता ॥
सव्वेसि गुण - गहणं,
सभी से प्रिय वचन बोलना, खोटे वचन बोलने पर दुर्जन को भी क्षमा करना और सभी के गुणों को ग्रहण करना — ये मन्दकषायी जीवों के उदाहरण हैं ।
अष्प-पसंसण- करणं, पुज्जेसु वि दोस गहण सीलत्तं । वेर-धरणं च सुइरं, तिव्व कसायाण लिंगाणि ॥
अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना और बहुत काल तक वैर धारण करना- -ये तीव्र कषायी जीवों के चिह्न हैं ।
वमे चत्तारि दोसे उ, क्रोध, मान, माया और लोभ - ये का हित चाहनेवाला साधक इन चारों
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( ११ )
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कोह माणं च मायं च लोभं च पाववड्ढणं । हियमष्पणो ||
इच्छंतो
पाप को बढ़ानेवाले हैं । अतः आत्मा कषाय को छोड़ दे ।
- दशवैकालिक ( ८/३६)
कोहो पीइ
पणासेइ,
माया मित्ताणि नासेर,
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( २ )
क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करनेवाला है, माया मैत्री का विनाश करती है और लोभ सब ( प्रीति, विनय और मैत्री ) का नाश करनेवाला है ।
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माणो
विणयनासणो ।
लोहो सव्व विणासणो ॥
- दशवेकालिक ( ८ / ३७ ) कोहो या माणो य अणिग्गहीया माया य लोभो य पवड्ढमाणा । चत्तारि ए ए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइ पुणन्भवस्स ॥ अनिगृहीत क्रोध और मान, प्रवर्द्धमान माया और लोभ - ये चारों संक्लिष्ट कषाय पुनर्जन्मरूपी वृक्ष की जड़ों का सिंचन करते हैं ।
- दशवेकालिक (८/३६ )
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