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उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । माणं चजवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥ उपशम ( शान्ति ) से क्रोध का हनन करे, मृदुता से मन को जीते, ऋजुभाव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीते ।
-दशवैकालिक (८/३८) कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा। एयाणिवन्ता अरहा महेसी, न कुवई पाव न कारवेई ॥
क्रोध, मान, माया, एवं लोभ-ये चारों अन्तरात्मा के महान दोष है। इनका पूर्णरूप से परित्याग करनेवाले अन्त महर्षि न स्वयं पाप करते हैं और न दूसरों से करवाते हैं।
-सूत्रकृताङ्ग (१/६/२६) अणथोवं वणथोवं, अग्गी थोवं कसाय थोवं च ।
ण हु भेवीससियव्यं, थोवं पि हु ते बहुँ होइ । ऋण, घाव, अग्नि, और कषाय-इन चारों का यदि थोड़ा-सा अंश भी है तो उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। ये थोड़े भी समय पर बहुत विस्तृत हो जाते हैं।
-आवश्यक-नियुक्ति ( १२० ) संसारस्स उ मूलं कम्म, तस्स वि डंति य कसाया। विश्व का मूल है, 'कर्म' और कर्म का मूल है, 'कषाय' ।
–दशवैकालिक-नियुक्ति (१८६) सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति। मन्नामि उच्छुफुल्लं व निप्फलं तस्स सामन्नं ।। श्रमण-धर्म का अनुचरण करते हुए भी जिसके क्रोध आदि कषाय उत्कट हैं तो उसका श्रमणत्व वैसा ही निरर्थक है जैसा कि ईख का फूल ।
–दशवैकालिक-नियुक्ति ( ३०१) जस्स वि अ दुप्पणिहिआ होंति कसाया तवं चरंतस्स । सो बालतवस्सीवि व गयण्हाणवरिस्समं कुणइ ॥
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