________________
जे लोयं अब्भाइक्खइ से अत्ताणं अन्भाइक्खइ । जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं अन्भाइक्खइ ॥ जो व्यक्ति लोक का निषेध-अपलाप करता है, वह आत्मा का भी अपलाप करता है और जो व्यक्ति आत्मा के अस्तित्व का निषेध करता है, वह लोक के अस्तित्व का भी निषेध करता है ।
-आचाराङ्ग ( १/१/३/५) एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरगं । आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त शरीर को धुन डालो।
-आचाराङ्ग ( १/४/३/२) सव्वे सरा नियति, तका जत्थ न विजइ,
मई तत्थ न गाहिया । आत्मा के वर्णन में ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति नहीं है तथा वाच्य-वाचक सम्बन्ध भी नहीं है। वहाँ तर्क की गति भी नहीं है और बुद्धि का वहाँ प्रयोजन नहीं है, वह भी उसे पूर्णरूपेण ग्रहण नहीं कर पाती है ।
-आचाराङ्ग ( १/५/६/६ ) अंतरतच्चं जीवो, बाहिरतच्वं हवंति सेसाणि । एक आत्मा ही अन्तस्तत्त्व है, शेष सारे द्रव्य तो बहिस्तत्त्व हैं ।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( २०५) उवओगलक्षणमणाइ-निहणथमत्थंतरं सरीराओ।
जीवमरूविं कारिं, भोयं च सयस्स कम्मस्स ॥ जीव का लक्षण उपयोग है। यह अनादि-निधन है, शरीर से भिन्न है, अरूपी है और अपने कर्म का कर्ता-भोक्ता है ।
___ -ध्यान-शतक (५५) नो इन्दियग्गेझ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निश्चो। आत्मा अमूर्त है । अतः वह इन इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है ।
- उत्तराध्ययन (१४/१६)
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org