________________
सुठुवि मग्गिज्जतो, कत्थवि कयलीइ नत्थि जह सारो। इंदिय विसएसु तहा, नथि सुहं सुठुवि गविट्ठ॥
जैसे केले के वृक्ष में अच्छी तरह से देखने पर भी कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इन्द्रियों के विषयों में भी शोध करने के पश्चात लेश मात्र भी सुख दृष्टिगोचर नहीं होता।
-इन्द्रियपराजय-शतक (३५)
उत्तराधिकारी
महिलाणसु बहुयाणवि, अजाओ इह समत्त घर सारो । रायं पुरुसेहिं णिज्जइ, जणेवि पुरिसो जहिं णत्थि ।।
स्त्रियाँ कितनी ही चतुर क्यों न हों, अगर उसके घर में पुरुष नहीं, या उत्तराधिकारी पुत्र नहीं तो राजपुरुष उनके घर से संचित धन ले जाकर राजकोष में जमा कर लेते हैं ।
-सार्थपोसहसज्झायसूत्र (१८)
उद्बोधन
वोही य से नो सुलहा पुणो पुणो। सद्बोध प्राप्त करने का अवसर बारम्बार मिलना सुलभ नहीं है ।
-दशवैकालिक ( १/१४) जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न बढई ।
जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ॥ जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियाँ नहीं बढ़ती और जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं हो जाती, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिये।
-दशवकालिक (८/३६)
[ ७१
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org