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जं कल्लं कायव्वं, णरेण अज्जेव तं वरं काउं । मच्चू अकलुणहि अओ, न हु दीसइ आवपंतो वि ॥ जो कर्त्तव्य कल करना है, वह आज ही कर लेना श्रेयस्कर है। मृत्यु अत्यन्त निर्दय है, पता नहीं, यह कब आ जाए !
-बृहत्कल्पभाष्य ( ४६७४) धम्मो जणओ करुणा, माया भाया विवेगनामेणं ।
खंति पिआ सप्पुत्तो, गुणो कुटुंबो इमं कुणसु ।। धर्म रूपी पिता, करुणा रूपी माता, विवेक रूपी भ्राता, क्षमा रूपी पत्नी और सद्गुणों रूपी पुत्रों को तूं अपना अन्तरंग कुटुम्ब बना ।
-आत्मावबोधकुलक ( २३) लोगपमाणो सि तुमं, नाणमओऽणंतवीरिओ सि तुमं । नियरज्जठिइ चितुसु, धम्मज्झाणा सणासीणो॥ तु ज्ञानमय है, अनन्त वीर्यमान है, अतः धर्म-ध्यान रूपी आसन पर बैठकर अपनी आत्मराज्य स्थिति कैसी है, इसका विचार तो कर ।
-आत्मावबोधकुलक (३०) तं भणसु गणसु वायसु, झायसु उवइससु आयरेसु जिआ। खणमित्तमपि विअक्खण, आयारामे रमसि जेणं॥
हे मनुष्य ! वही पढ़, वही गुन, वही बोल, वही ध्यान धर, उसी उपदेश का आचरण कर जिससे हे विचक्षण! क्षण मात्र भी तूं आत्मरूपी बाग में खेल सके।
-आत्मावबोधकुलक (४२)
बुज्झिज्जति तिउहिज्जा, बंधणं परिजाणिया। सर्वप्रथम बंधन को समझो, और समझकर फिर उसे तोड़ डालो।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१/१/१) सेणे जहा वट्यं हरे, एवं आउखयम्मि तुट्टई। एक ही झपाटे में बाज बटेर को मार डालता है, वैसे ही आयुष्य क्षीण होने पर मृत्यु भी जीवन को हर लेती है ।
- सूत्रकृताङ्ग ( १/२/१/२) ७२ ]
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