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नाणं व दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा।
वीरियं उवओगो य, एवं जीवस्स लक्खणं ॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग-ये सब जीव के लक्षण हैं।
-उत्तराध्ययन( २८/११) पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म
जं से पुणो होइ दुहं विवागे। आत्मा प्रद्वषयुक्त चित्तवाला होकर अर्थात् राग-द्वेष से कलुषित होकर कर्मों का संचय करता है, वही परिणामकाल में उसके लिए दुःख का हेतु बनता है।
-उत्तराध्ययन (३२/४६ ) न लिप्पई भवमझे वि संतो,
जलेण वा पोक्खरिणीपलासं । जो आत्मा विषयों के प्रति अनासक्त है, वह विश्व में रहता हुआ भी निर्लिप्त रहता है, जैसे कि पुष्करिणी के जल में रहा हुआ पलाश-कमल ।
-उत्तराध्ययन (३२/४७) एसो मित्तमित्तं, एसो सग्गो तहेव नरओ अ |
एसो राया रंको, अप्पा तुट्ठो अतुट्ठो वा॥ आत्मा तुष्टमान होने पर मित्र है, स्वर्ग है और राजा भी है और यदि आत्मा अतुष्टमान हुआ तो वही शत्रु है, नरक है और रंक भी है ।
-आत्मावबोधकुलक (१३) अप्पा जाणइ अप्पा । आत्मा ही आत्मा को जानता है ।
-उपदेशमाला (२३) आदा धम्मो मुणेदवो। आत्मा ही धर्म है, यानी धर्म आत्मस्वरूप होता है।
-प्रवचनसार
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