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नस्थि जीवस्स नासु ति। आत्मा का कभी नाश नहीं होता, वह तो अविनाशी है।
-उत्तराध्ययन ( २/२७) जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययन्ति मणुस्सयं । विश्व में आत्माएँ काल-क्रम के अनुसार शुद्ध होते-होते मनुष्यत्व को प्राप्त होती हैं।
--उत्तराध्ययन (३/७) अप्पणा सच्चेमेसेजा। स्वयं की आत्मा के द्वारा सत्य की गवेषणा करो।
–उत्तराध्ययन (६/२) बहुकम्मलेवलित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं। जो आत्माएँ प्रचुर कर्मों के लेप से लिप्त हैं, उन्हें बोधि प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है।
-उत्तराध्ययन (८/१५) . नो इन्द्रियग्गेज्म अमुत्तभावा, अमुत्तभावा विय होइ निच्चं ।
आत्मा आदि अमृत-तत्त्व इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं होते और जो अमूर्त होते हैं, वे अविनाशी-नित्य भी होते हैं ।
-उत्तराध्ययन (१४/१६) अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहा धेणू, अप्पा मे नंदणं वणं । आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी तथा कूट-शाल्मली वृक्ष है। आत्मा ही स्वर्ग की कामदुधा-धेनु और नन्दन-वन है।
-उत्तराध्ययन ( २०/३६) अप्पा कत्ता विकत्ताय, दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्टिओ॥ आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई होने पर वही शत्रु है ।
-उत्तराध्ययन (२०/३७) ५८ ]
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