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एगो सयं पञ्चणुहोइ दुक्खं । स्वकृत दुःखों को आत्मा अकेला ही भोगता है ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/५/२/२२) ते आत्तओ पासइ साव्वलोए। तत्त्वदर्शी सम्पूर्ण प्राणिजगत् को अपनी आत्मा के समान ही देखता है ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१२/१८) अलमप्पणो होंति अलं परेसि । 'स्व' और 'पर' के कल्याण में ज्ञानी आत्मा ही समर्थ होता है ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१३/१६ ) अन्नो जीवो, अन्नं सरीरं आत्मा और देह और हैं अर्थात दोनों भिन्न हैं ।
-सूत्रकृताङ्ग ( २/१/६) दुक्खे णज्जइ अप्पा। आत्मा को बड़ी कठिनाई से जाना जाता है ।
-मोक्षपाहुड़ (६५) आदा हु मे सरणं । आत्मा ही मेरा एकमात्र शरण है ।
-मोक्षपाहुड़ (१०५) जारिसिया सिद्धप्पा, भवमल्लिय जीव तारिसा होति । जिस तरह की शुद्ध आरमा सिद्धों की है, मूल स्वरूप से उसी तरह की शुद्धात्मा संसारस्थ प्राणियों की है ।
-नियमसार (४७) कत्ता भोत्ता आदा, पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो। आत्मा पुद्गल कमों को करनेवाला और भोगनेवाला है, यह मात्र व्यवहार-दृष्टि ही है।
--- नियमसार (१८)
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