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वेराजुबद्धा नरयं उवेंति
जो वैर की परम्परा को तुल देते रहते हैं, वे नरकगामी होते हैं । -- उत्तराध्ययन ( ४/२) अज्झत्थं सव्वओ सव्वं, दिस्ल पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए ॥
सब दिशाओं से होनेवाला सब प्रकार का अध्यात्म-सुख जैसे मुझे इष्ट है, वैसे ही दूसरों को इष्ट है और सब प्राणियों को अपना जीवन प्यारा हैदेखकर भय और वैर से उपरत पुरुष प्राणियों के प्राणों का घात न करे ।
-यह
- उत्तराध्ययन ( ६/६ )
जगनिस्सिएहिं भूपहिं, तसनामेहि थावरेहिं च । नो तेसमारभे दंड, मणसा वयसा कायसा चेव ॥
जगत् के आश्रित जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके प्रति मन, वचन और काया - किसी भी प्रकार से दण्ड का प्रयोग न करें ।
- उत्तराध्ययन ( ८/१० )
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिणे 1 एगं जिणेज अप्पाणं, एस से परमो जओ ||
जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा वह एक अपने आपको जीतता है, तो यह उसकी परम विजय है ।
- उत्तराध्ययन ( ६ / ३४ )
समया
सव्वभूएसु, सत्तु मित्तेसु पाणाइवायविरई, जावजीबाए
विश्व के शत्रु और मित्र सभी जीवों के यावज्जीवन प्राणातिपात की विरति करना बहुत ही
वा जगे ।
दुक्करा ॥
प्रति समभाव रखना और कठिन कार्य है ।
- उत्तराध्ययन ( १६ / २५ )
सव्वाओवि नईओ, कमेण जह सायरमि निवडंति । तह भगवई अहिंसा, सव्वे धम्मा
समिल्लं ति ॥
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