________________
आहिच्चहसा समितस्स जा तू, सा दम्वतो होति ण भावतो उ। भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति ॥
संयमी पुरुष के द्वारा कदाचित् हिंसा हो भी जाए, तो वह द्रव्यहिंसा होती है, भावहिंसा नहीं। परन्तु जो असंयमी है, वह जीवन में कदाचित किसी का वध न करने पर भी, भाव-रूप से निरन्तर हिंसा में लीन रहता है।
-बृहत्कल्पभाष्य ( ३६३३) जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणमपरो अविरतो य। . तत्थ वि बंधविसेसी, महंतरं देसितो समए ॥
एक असंयमी, जानकर हिंसा करता है और दूसरा अनजाने में, शास्त्र में इन दोनों के हिंसाजन्य कर्मबन्ध में महान अन्तर बताया है ।।
-बृहत्कल्पभाष्य ( ३६३८) जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छं परस्स वि, एत्तिणगं जिणसासणं ॥ जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए जो तुम अपने लिए नहीं चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए-बस, यही जिनशासन है, तीर्थंकरों का उपदेश है।
-बृहत्कल्पभाष्य ( ४५८४) सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं । सव्वेसिं वद्गुणाणं पिंडो, सारो अहिंसा हू॥ अहिंसा विश्व के सर्व आश्रमों का हृदय है, सभी शास्त्रों का उद्गम स्थान है तथा सर्वत्रतों-सिद्धान्तों का नवनीत रूप सार है ।
-भगवती-आराधना (७६०) भूतहितं ति अहिंसा। प्राणियों का हित अहिंसा है ।
- नन्दीसूत्रचूर्णि (५/३८) न य वित्तासए परं । दूसरों को त्रास नहीं देना चाहिये ।
--उत्तराध्ययन (२/२०)
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org