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अविनीत पुरिसम्मि दुन्विणीए, विणयविहाणं न किंचि आइक्खे । न वि दिज्जति आभरणं, पलियत्तिकण्ण-हत्थस्स ।।
दुविनीत व्यक्ति को सदाचार की शिक्षा नहीं देनी चाहिए। भला, उसे कङ्कण एवं पायल आदि आभूषण क्या दिए जायँ, जिसके हाथ-पैर ही कटे हैं ।
--निशीथ-भाष्य ( ६२२१) आणा-निदेसऽकरे, गुरुणमुववायकारए ।
पडिणीए असंबुद्ध, अविणीए त्ति वुच्चए । जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन नहीं करता, गुरु की शुश्रूषा नहीं करता, जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है और तथ्य को नहीं जानता, वह 'अविनीत' कहलाता है ।
__-उत्तराध्ययन ( १/३) अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्ति ण पावंति । विनय-रहित मनुष्य सुविहित मुक्ति को प्राप्त नहीं करते हैं ।
-भाव-पाहुड़ ( १०२) थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्तगासे विणयं न सिक्खे । सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीयस्स वहाय होइ॥
गर्व, क्रोध, माया या प्रमादवश जो विद्यार्थी गुरु-अध्यापकों का आदर नहीं करता, शिक्षकों के समीप विनय की शिक्षा नहीं लेता है वह विनय की अशिक्षा, अविनयी आचार उसका वैसे ही नाश करनेवाला होता है, जैसेबाँस का फल बाँस के नाश के लिए होता है ।
-दशवकालिक (६/१/१ ) बुज्झइ से अविणीयप्पा, कटुं सोयगयं जहा । अविनीतात्मा संसार-स्रोत में वैसे ही प्रवाहित होता रहता है जैसे नदी के स्रोत में पड़ा हुआ काष्ठ ।।
-दशवैकालिक (६/२/३)
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