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अमय
भीतो अवितिजओ मणूसो, भीतो भूतेहि धिप्पइ,
भीतो अन्नपि हु भेसेजा। भयभीत मनुष्य पर अनेकों भय आकर झटपट हमला कर देते हैं । डरपोक आदमी सदा अकेला और असहाय होता है। भयाकुल मनुष्य ही भूतों का शिकार होता है। स्वयं भयभीत हुआ व्यक्ति दूसरों को भी भयभीत कर देता है ।
--प्रश्नव्याकरण ( २/२) भीतो तवसंजमंपि हु मुएजा, भीतो य भरं न नित्थरेजा,
सप्पुरिसनिसेवियं च मग्ग भीतो न समत्थो अणुचरिउं॥ भयभीत साधक तप और संयम को भी तिलांजलि दे देता है। वह किसी महत्वपूर्ण कार्य के दायित्व को निभा नहीं पाता और न ही सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग पर ही चलने में समर्थ होता है।
--प्रश्नव्याकरण ( २/२ ) न भाइयध्वं भयस्स वा वाहिस्स वा ।
रोगस्स वा, जराएवा मच्चुस्स वा॥ आकस्मिक भय से, व्याधि से, रोग से, बुढ़ापे से और तो क्या मृत्यु से भी किमी को कभी नहीं डरना चाहिये।
--प्रश्नव्याकरण ( २/२ ) जे ण कुणइ अवराहे, सो णिस्संकोदु जणवए भमदि । जो किसी तरह का अपराध नहीं करता, वह निडर होकर जनपद में घूम सकता है । इसी तरह निरपराध भी सर्वत्र अभय होकर विचरण करता है।
-समयसार (३०२) जं कीरइ परिरक्खा, णिच्चं मरण भयभीरु-जीवाणं । तं जाण अभयदाणं, सिहामणि सव्वदाणाणं ॥ मृत्यु-भय से भयभीत जीवों की रक्षा करना ही अभय-दान है। यह अभयदान सब दानों का शिरोमणि है ।
---वसुनन्दि-श्रावकाचार ( ३३८) २८ ]
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