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एवं भवसंसारे, संसरइ सुहासुहेहि कम्मेहि,
जीवो पमायबहुलो। प्रमाद-बहुल जीव शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा जन्म-मृत्युमय संसार में परिभ्रमण करता है।
-उत्तराध्ययन (४/१५) मज्जं विसय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । इअ पंचविहो एसो होई पमाओ य अप्पमाओ॥
मदिरा, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा- यह पाँच प्रकार का प्रमादः है। इनसे विरक्ति ही अप्रमाद है ।
-उत्तराध्ययन-नियुक्ति ( १८० ) पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहऽवरं । प्रमाद को कर्म-आश्रव और अप्रमाद को अकर्म संवर कहा गया है । अर्थात आसक्ति को प्रमाद कहा गया है तथा अनासक्ति को अप्रमाद ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/८/३). जेद्देय से विप्पमायं न कुजा । जो कभी प्रमाद नहीं करता है, वही वस्तुतः चतुर है ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१४/१) सिग्घं आरुह कज्जं पारद्धमा कह पि सिढिलेसु ।
पारद्ध सिढिलियाई कजाइ पुणो न सिनंति ॥ कार्य का प्रारम्भ शीघ्र करो, प्रारम्भ किये हुए कार्य में किसी भी प्रकार की शिथिलता मत करो। प्रारम्भ किये हुए कार्यों में शिथिलता आ जाने पर वे पुनः पूर्ण नहीं होते हैं ।।
-वजालग्ग (६/२) पमत्तजोगे, पाणव्ववरोवओ णिच्चं । प्रमाद का योग नित्य प्राणघातक है ।
- भगवती आराधना (८०१) २६ ।
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