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जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले। न तस्स 'माया व पिया व भाया', कालम्मि तम्मिसहरा भवंति ।।
जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। उस समय उसके माता-पिता या भाई अंशधर नहीं होते । वे अपनी आयु देकर मृत्यु से नहीं बचा सकते ।
-उत्तराध्ययन ( १३/२२) न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बन्धवा । एक्को सयं पञ्चणुहोइ दुक्खं ,
कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ॥ ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुण्य और बान्धव मनुष्य का दुःख नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है, क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है।
-उत्तराध्ययन ( १३/२३ ) चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिह धणधन्नं च सव्वं । कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुन्दरं पावगं वा ॥
यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धन, धान्य, वस्त्र आदि सब यहीं छोड़ जाता है। कोई उसे शरण नहीं दे पाता। वह केवल सुखद या दुखद किये कर्मों को साथ लेकर परभव में जाता है ।
-उत्तराध्ययन (१३/२४) चिई गयं डहिय उ पावगेणं । भजा य पुत्ता वि य नायओ य,
दायारमन्नं अणुसंकमन्ति । जिसे हम अपना मानते हैं, वे ही हमारे मृत होने पर शरीर को अग्नि से चिता में जलाकर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता, जीविका देनेवाले के पीछे चले जाते हैं।
-- उत्तराध्ययन ( १३/२५ ) ३२ ]
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