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पच्छा पुरा व खइयव्वे, फेणबुब्बुयसन्निभे ।
यह शरीर पानी के बुदबुदे के समान नश्वर है । दिन तो अवश्य छोड़ना पड़ेगा ।
इसे पहले या पीछे एक
- उत्तराध्ययन ( १६/१३ )
जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जुव्वणं जरासहियं । लच्छी विणास सहिया, इय सव्वं भंगुरं मुणह || जन्म के साथ मृत्यु, यौवन के साथ बुढ़ापा, लक्ष्मी के साथ विनाश सतत लगा हुआ है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु नश्वर है ।
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा (५) माणुस भवे अणेगजाइ -जरा-मरण रोग सारीर माणसपकामदुक्खवेयण वसणसओवद्दवाभिभूए, अधुवे, अणिइए, असासए संज्झभरागसरिसे, जलबब्बुयसमाणे, कुसग्गज लबिंदुसण्णिभे, सुविण गदं सोवमे, विज्जुलया चंचले, अणिच्चे ॥
यह मनुष्य-जीवन जन्म, जरा, मरण, रोग, तथा मानसिक दुःखों की अत्यन्त वेदना से एवं
व्याधि और अनेक शारीरिक सैकड़ों कष्टों से पीड़ित है। यह अव, अनित्य और अशाश्वत है । सन्ध्याकालीन रंगों के समान, पानी के बुलबुले के सदृश, कुशाग्र पर स्थित जल बिन्दुवत्, स्वप्न-दर्शन के समान तथा बिजली की चमक के जैसा चंचल और अनित्य है ।
- अनुत्तरौपपातिक दशांग ( ३ / २ / ५ )
अनुकम्पा
तिसिबं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो दू दुहिदमणो । पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकम्पा ॥
तृषातुर, क्षुधातुर अथवा दुःखी को देखकर जो मनुष्य मन में दुःख पाता हुआ उसके प्रति करुणापूर्वक व्यवहार करता है उसका वह भाव अनुकम्पा है । - पंचास्तिकाय ( १३७ / २०१ ) जो उ परं कंपतं, दट्ठूण न कंपए कढ़िण भावो । एसो उ निरणुकंपो, अणु पच्छा भाव जोएणं ॥
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