________________
होऊण य णिस्संगो, णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं । णिहदेण दु वट्टदि, अणयारो तस्साऽकिंधणं ॥ . जो साधक सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग कर निःसंग हो जाता है, अपने सुखद व दुःखद भावों का निग्रह करके निर्द्वन्द्व विचरता है, उसे आकिंचन्य धर्म होता है अर्थात नितान्त अपरिग्रह-वृत्तिवाला होता है।
-बारह अणुवेक्खा (७६) मिच्छत्तवेदरागा, तहेव हासादिया य छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया, चउदस अब्भंतरा गंथा ॥ बाहिरसंगा खेत्तं, वत्थु धणधनकुप्पभांडाणि।
दुपयचउप्पय जाणाणि, केव सयणासणे य तहा॥ परिग्रह दो प्रकार का है--१. आभ्यन्तर और २. बाह्य । आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का है—(१) मिथ्यात्व, (२) स्त्रीवेद, (३) पुरुषवेद, (४) नपंशकवेद, (५) हास्य, (६) रति, (७) अरति, (८) शोक, (९) भय, (१०) जुगुप्सा, (११) क्रोध, (१२) मान, (१३) माया, (१४) लोभ । बाह्य परिग्रह के दस प्रकार हैं-(१) खेत, (२) मकान, (३) धनधान्य, (४) वस्त्र, (५) भाण्ड, (६) दास-दासी, (७) पशु, (८) यान, (६) शय्या, (१०) आसन ।
___-भगवतीआराधना ( १११८-१११६ )
अप्रमाद वीरेहिं एवं अभिभूय दिहें संजएहि सया अप्पमत्तेहिं । सदैव अप्रमत्त रहनेवाले जितेन्द्रिय वीर पुरुषों ने चित्त के समग्र द्वन्द्रों को अभिभूत कर, परम सत्य का साक्षात्कार किया है ।
-प्राचाराङ्ग ( १/१/४/३४) जे पमत्ते गुणट्ठीए से हु दंडेति पवुञ्चइ । जो व्यक्ति प्रमादी है, विषयासक्त है वह निश्चय ही जीवों को कष्ट देनेवाला होता है।
-आचाराङ्ग ( १/१/४/३५)
[ २३
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org