________________
चाला है। इसलिए परिग्रह का त्याग करने पर राग-द्वेष-रहित साधक को जो सुख प्राप्त होता है, चक्रवर्ती का सुख उसके अनन्त भाग की समानता नहीं कर सकता।
-भगवतीआराधना (११८३) गंथच्चाओ इ दिय-णिवारणे, अंकुसो व हथिस्स।
णयरस्स खाइया वि य, इदियगुत्ती असंगतं ॥ जैसे हाथी को वश में रखने के लिए अंकुश आवश्यक होता है और नगर की रक्षा के लिए खाई अनिवार्य होती है, वैसे ही इन्द्रिय-विषय निवारण के लिए परिग्रह का त्याग आवश्यक होता है क्यों कि परिग्रह-त्याग से इन्द्रियाँ वश में होती है।
-भगवतीआराधना ( ११६८) जह जह अन्नाणवसा, धणधन्न परिग्गहं बहुं कुणसि । तह तह लहुं निमज्जसि, भवे भवे भारिअतारि व्व ॥ जैसे-जैसे मनुष्य अज्ञानदशा से धन-धान्यादि का परिग्रह अधिक करता है, वैसे-वैसे वह प्रमाण से अधिक भार से भरी हुई नौका के समान शीघ्र ही भवोभव में डूबता है।
-आत्मावबोधकुलकम् ( १६ ) जो संचिऊण लच्छि धरणियले संठवेदि अइदूरे । सो पुरिसो तं लच्छि पाहाण सामाणियं कुणदि ॥
जो मनुष्य लक्ष्मी का संचय करके पृथ्वी के तल में उसे गाड़ देता है, वह मनुष्य उस लक्ष्मी को पत्थर के तुल्य कर देता है।
___-कार्तिकेयानुप्रेक्षा (१४) चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिझ किसामवि ।
अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चई ॥ जो मनुष्य सजीव अथवा निर्जीव किसी भी वस्तु का स्वयं भी परिग्रह करता है, और दूसरों को भी उन वस्तुओं पर स्वामित्व स्थापित करने की सलाह देता है, वह कभी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता ।
-सूत्रकृताङ्ग (१/१/१/२)
[ २१
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org