________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सातंवा स्तम्भलेख
17. ये और अन्य बहुत से मुख्य (मुखिया) दान वितरण में लगे हैं, मेरे और
देवियों (रानियों) के। वे मेरे समस्त अवरोधों (रनिवासों) में बहुत प्रकार
और आकार से उन-उन तुष्टीकारक सम्पन्न करते हैं, यहां और (सब) दिशाओं में। मेरी (राज) स्त्रियों और अन्य देवी-कुमारों के दान वितरण में
लगे रहेंगे। 18. धर्म के प्रसार और धर्म के अनुकरण के लिए है यह। धर्मप्रसार और
धर्मानुकरणता ये हैं-दया, दान, सत्य, शुचिता, मृदुता और साधुता लोक में इस प्रकार बढ़ेगी। देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा। मैंने जो भी कोई साधु (कर्म) किये उनको लोग प्राप्त करते रहें और लोग उनका अनुकरण करते रहें। उससे बढ़े और बढ़ते रहेंगे और माता-पिता की सेवा, गुरु की सेवा, वयोवृद्धों के अनुकरण से, ब्राह्मण-श्रमण, कृपण-वराक, दास-भृतक के प्रति सद्व्यवहार से। देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा ने इस प्रकार कहा। मनुष्यों की यह धर्मवृद्धि दो
प्रकार से बढ़ी-धर्मनियम और ध्यान से। 20. परन्तु वह धर्मनियम लघु है, बड़ा तो ध्यान है। और धर्मनियम ये जो मैंने
(प्रसारित) किये। ये उत्पन्न (प्राणी) अवध्य हैं। मैंने अन्य भी बहुत से धर्मनियम जो किये हैं। ध्यान से मनुष्यों में प्रचुर धर्मवृद्धि बढ़ी। भूतों
(जीवों) की अहिंसा के लिए। 21. प्राणियों के अवध (अहिंसा) के लिए। अतः इस प्रयोजन के लिए यह
किया। पुत्र-प्रपौत्र के चन्द्र-सूर्य के (अवधि के लिए हो और (सब) अनुसरण करें। इस प्रकार के अनुकरण से इस लोक और परलोक का कल्याण होता है। अभिषेक के सत्ताईस वर्ष होने पर मैंने यह धर्म लिपि
(धर्मलेख) लिखवाई। देवों के प्रिय ने यह कहा। यह 22. धर्मलिपि जहां शिलास्तम्भ हैं अथवा जहां शिलाफलक हैं वहां करवायी
जिससे यह चिरस्थायी हो।
For Private And Personal Use Only