________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
178
प्राचीन भारतीय अभिलेख
15.
जिसने काञ्ची नगरी के वप्र (परकोटे) में ही अवरुद्ध कर दिया। 29 चञ्चल मीन रूपी विलोल नयनों वाली कावेरी, अचानक चोलों पर विजय पाने के इच्छुक जिस (पुलकेशी) के बहते दान (मदजल) से युक्त गजों की सेतु से जल के अवरुद्ध हो जाने से, सागर का स्पर्श (आलिंगन) न पा सकी। 30 जो पुलकेशी चोल, केरल तथा पाण्ड्य नृपों की समृद्धि में (मित्र होने से) सहायक बना वही पल्लवसेना रूपी पाले (तुषार, ओस) के लिये सूर्य (सा शोषक) बना। 31 उत्साह, प्रभु तथा मन्त्रशक्ति से युक्त जिसने सारी दिशाओं के नपों को जीतने के पश्चात् विजित नरेशों को विदा कर देव-ब्राह्मणों की अर्चना करके लहराते सागर के नीले जल की परिखा वाली अन्य पृथ्वी के समान
इस नगरी में प्रवेश कर 16. सत्याश्रय के शासन करने पर . . . . 32
(महा) भारत के युद्ध के प्रारम्भ से 3735 वर्ष व्यतीत होने पर ... .33 कलियुग (की काल गणना) में शकनृपों के 556 वर्ष व्यतीत होने पर. 34
(पूर्व, पश्चिम, दक्षिण आदि) तीनों समुद्रों से सीमित शासन वाले 17. सत्याश्रय की परम कृपा प्राप्त करते हुए मेधावी रविकीर्ति ने भवनों में
महिमाशाली यह पाषाण का जिनेन्द्र भवन (जैन मंदिर) बनवाया। 35 तीन लोक के गुरु 'जिन' की इस प्रशस्ति का रचयिता तथा भवन बनवाने वाला स्वयं समर्थ (यशस्वी) रविकीर्ति है। 36 जो विवेकशील (मेधावी) पाषाणों से सुदृढ़ इस जैन मंदिर के नव-निर्माण
तथा प्राशस्ति के नूतन निर्माण में लीन हुआ तथा जिसने अपनी कविता 18. से कालिदास तथा भारवि की कीर्ति प्राप्त कर ली, वह रविकीर्ति विजयी
हो। 37 मूलवल्लिवेल्मल्तिकवाडमच्चनूगङ्गवूऍलिगेरेगण्डव ग्राम इसकी भुक्ति है। पर्वत-तट से पश्चिम की ओर निमूवारि तक उत्तर एवं दक्षिण में महापथों के मध्य इस नगर की सीमा है।
For Private And Personal Use Only