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युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख
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इसी
की कला शिवजी के सिर पर शोभित है। अधिक क्या कहा जाय, ( चन्द्रमा) से हैहयों का वंश उत्पन्न हुआ । 7
इसी वंश में बुध आदि आदिम नृपों से यह (वंश) वन्द्य हुआ तथा उदार नरेश अर्जुन हुआ। जो शत्रु-अरण्य को काटने की प्रशंसनीय कीर्ति- कान्ति से सुदीर्घ दिगन्तराल में पहुंच गया। 8
जिसके वक्षस्थल पर आघात करने से टूटते हुए वज्र से निकलती ज्वालावलि से
त्रस्त्र हाथी (ऐरावत) के साथ इन्द्र कहीं चला गया। जिसने खेल में शिव जी के हिमालय को उठा लिया, उस लङ्कापति (रावण) को भी शत्रुता ठान कर वह ख्याति का प्रमाण बन गया। 9
उसके गुण की प्रशंसा करने वाले हम कौन! निरर्थक बकवास से क्या ? लगता है, वाणी के शरीर वाली देवी (सरस्वती) भी उस पर स्पष्ट ही मुग्ध हो गयी है । यथेच्छ लक्ष्मी के क्रीड़ास्थल उस (नृप) का जिस देव दत्तात्रेय ने भी, पुत्र प्रदान के वचन निभाने की चाह से जिसे अपना लिया। 10 तब उस सज्जनों की व्रत शृंखला के पर्वत से कितने (नृप) नहीं हुए? जिन्होंने पूर्णचन्द्र को अपनी कीर्ति से पराजित कर दिया। 11
उन (परवर्ती काल के अनेक ) नृपों के पश्चात् मानवों को चकित करता हुआ, धन्यों की चरमसीमा, प्रणाम करते नृपों में इन्द्र के समान, शत्रु रूपी लतावन को जलाने में दावानल तथा सम्मान शिखर कोकल्लदेव (प्रथम) हुआ जिसका प्रताप तीनों लोक घेर कर व्याप्त हो गया । 12
भूलोक के विजय हेतु जिसके सैन्य प्रयाण लपलपाती लहरों वाले निर्मर्याद समुद्र के समान प्रतीत होती थी। जिसके भार से धंसती धरा को फण के पटल से आश्रय देने वाला शेषनाग भी त्रस्त हो गया। 13 जिसकी सैन्य ( के प्रयाण से उड़ी) धूल के धरा से क्रमशः तारापथ (आकाश) तक व्याप्त हो जाने पर रात्रि की आशंका से वियोगभाव से चकवों के जोड़े व्याकुल हो गये। मयूरों ने मेघागम के भ्रम से नर्तन किया तथा अकाल ही प्रकाशाभाव होने से आंखों में अन्धता छा गयी। 14
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समुद्र तट के वनों के प्रेमी, सेना के कुलपर्वत के समान गजराजों ने जब उस (समुद्र) में प्रवेश कर स्नान करना प्रारम्भ कर दिया तब बहुत काल बारद सागर को उस काल की स्मृति हो आयी जब मन्दराचल से (उसका ) मंथन हुआ था। 15