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विजयसेन का देवपाड़ा शिलालेख
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उस शत्रुविजेता को, अगणित वानरेन्द्र की सेना के स्वामी राम के समान कहें अथवा पाण्डव-सेना के स्वामी युधिष्ठिर के समान। उस हन्ता ने केवल खड्गलता से शोभित भुजा से ही सात समुद्र के तटों से घिरी वसुधा के क्षेत्र पर ऐकाधिराज्य (चक्रवर्तित्व) का फल प्राप्त कर लिया। 17 विवेकाभाव में अन्य एक-एक ही गुण प्राप्त कर रह गये। कोई मारता है, कोई रक्षा करता है तथा अन्य सारे जगत् का सृजन करता है। इस मेधावी नृदेव ने तो अपने अनेक गुणों से शत्रु का विनाश करके प्रजा को जीवन (स्थान) दिया तथा उसका पोषण भी किया। 18 जिसने स्वयं पृथ्वी स्वीकार कर विरोधों नृपों को देवभूमि प्रदान की। वीरों के रुधिर की लिपि से अंकित खड्ग को इसने पहले ही पत्र बना लिया। यदि ऐसा नहीं होता तो भूमि के भोग में विवाद उत्पन्न होने पर खींची हुई तलवार धारण करने वाली शत्रुओं की सन्तति विनष्ट कैसे होती? 19 तू अनन्य वीर और विजेता है' कवियों की यह वाणी सुनकर वह मन में पैठी इस अनपेक्षित बात पर मनन करता हुआ अत्यंत क्रुद्ध हो उठा तथा गौड के स्वामी एवं मद्र के समान कामरूप के राजा को हटाकर उसने कलिंग को भी एकदम जीत लिया। 20 हे अनन्य! स्वयं को सूरमा जैसा मानते हो! राघव! अपनी प्रशंसा स्वयं क्यों कर रहे हो! वर्धन! स्पर्धा छोड़। वीर! तेरा गर्व अब तक शान्त नहीं हुआ। इस प्रकार कारागृह के पहरेदार स्नेही आपस में कोलाहल से नियमतः नपों की नींद हरामकर उन्हें थकाते (परेशान करते) रहते हैं। पाश्चात्य देशों को जीतने के खेल में तब तक उसके नौ-वितान (नौकाओं के बेड़े) गंगा की धारा में दौड़ने लगे। शिव के सिर के सरित् (गंगा) जल में भस्म कीचड़ छोड़ती चन्द्रकला सी नौका शोभित होती है। 22 जिसकी कृपा से अमिट वैभवशाली श्रोत्रिय (वेदज्ञ) की कान्ताओं की नागरियां कंपास के बीज से मोती, शाक के पत्तों (धनिया) से मरकत का टुकड़ा, लौकी के फूलों से चांदी, अन्तिम समय में मध्य से फटने वाले दाडिम से रत्न, तूमडी (कुम्हडा) की बेल के खिले पुष्पों से स्वर्ण की सीख देती हैं। 23
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