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प्राचीन भारतीय अभिलेख
23. सतत अर्पित यज्ञयूप की स्तम्भावली का तुरंत आश्रय लेकर, जिसके गौरव
से कालक्रम से एक चरण वाला धर्म की पृथ्वी पर घूम लिया। 24 24. घायल (या मारे गये) शत्रु समूह से पटे हुए मेरु पर्वत के तट से देवताओं
का यज्ञ के द्वारा आहार कर नगरवासियों के लिये जिसने स्वर्ग तथा मृत्युलोक (के निवासियों) में वैपरीत्य उपस्थित कर दिया। 24 देवताओं के योग्य विस्तृत तथा समुन्नत तल (मंजिलों) का निर्माण कर जिसने स्वर्ग तथा पृथ्वी का शरीर आपस में एक-सा कर उनका भेद समाप्त कर दिया। 25 उस भूमिपति ने प्रद्युम्नेश्वर का समुन्नत सौध (मंदिर) बनवाया। जो दिशा
रूपी शाखा का मूलभाग, आकाश 24. रूपी महासागर के मध्य तक पहुंचने वाला (अन्तरीप) भूभाग (अथवा
अधोवस्त्र), सूर्य के उदयाचल एवं अस्ताचल की स्थिति को मिलाता हुआ उदयास्त के बीच मध्याह्न पर्वत, त्रिभुवन के भवन का गिरितुल्य अद्वितीय एकमात्र अवशिष्ट (प्रमुख) आश्रयस्तम्भ है। 26
तेरे इस प्रासाद ने सूर्य के अश्वों का पथ 25. व्यर्थ ही रोक कर उस बेचारे (सूर्य) मुनि को अब तक दक्षिणदिशा के कोने
के छोर का निवासी बना रखा है। अन्य दिशा के समुन्नत पथ से जाकर विन्ध्य अपनी शक्तिभर बढ़ता रहे। फिर भर इस मंदिर की ऊंचाई (की बराबरी) वे नहीं पा सकेंगे। 27 यदि विधाता भूमि के चक्र पर सुमेरु पर्वत के पिण्ड को घुमाकर निर्माण करे तब (वह) घड़ा उसे अर्पित इस स्वर्णकुम्भ का उपमान हो सकता है। 28 सर्प सी विलासिनी के मुकुट के छोर पर जड़े (करोड़ों) रत्नों के अंश के समान चमकती किरण रूपी मञ्जरी से युक्त जलभरा उसने (शिवजी)
शत्रुओं के सामने ही तालाब खुदवाया जो 27. नागरियों के स्तन पर लगी कस्तूरी की सुगन्ध से भौंहे सा विचलित हो
रहा है। 29 अर्धनारीश्वर दिगम्बर के विचित्र वस्त्र, रत्नालंकारों से अलंकृत शरीर की दोगुनी शोभा प्रवृद्ध वाली नारियां एवं नागरिकों से सम्पन्न इस भिक्षा का भोजन करने वाले शिव की पुरी में
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