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विजयसेन का देवपाड़ा शिलालेख
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उस सेन कुल के सुवेत्ता ने दरिद्र भरण पोषण करने में अक्षय लक्ष्मी का वितान कर दिया। 30
विचित्र रेशमीवस्त्र तथा गजचर्म से युक्त, हृदय स्थल पर भूमि ( पार्थिव, हीरे-जवाहरात का ) हार तथा सर्पराज, चन्दन का लेप तथा भस्म, हाथ में शोभित महानील (पन्ना) रत्न तथा अक्षमाला, गरुडमणि (पन्ना) की वल्लरी का सर्प
चमकदार (मनोरम) मोतियों के शृंगार करते हुए अस्थियों से भी यथेच्छ समुचित शृंगार और इस प्रकार कल्पकापालक (हरिहर) का वेष सजाया
गया। 31
खेल-खेल में धरती का अद्वितीय स्वर्ण छत्र अपने बाहु से बनाते हुए जिसके लिये कुछ भी अभीप्सित शेष न बचा। प्रसन्न होकर वरदान देने वाले शिवजी भी उसे क्या वर देंगे?
30. अपने ही समान पूर्ण अमरता उसे देंगे। 32
इसका सम्पूर्ण चरित्र प्रस्तुत करने में या तो वाल्मीकि ही समर्थ हैं अथवा व्यास ही। हमारा प्रयास तो उसकी कीर्ति से पूर्ण गंगा में स्नान कर अपनी वाणी को केवल पवित्र करने के लिये ही है। 33
जब तक वास्तु-देवता ( अथवा इन्द्र)
31. पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा स्वर्ग के पवित्र भवन को धारण करता है, जब तक चन्द्रकला शिवजी के सिर पर शोभित रहती है, जब तक तीनों वेद सज्जनों का चित्त शुद्ध करते हैं, तब तक इन की सखी, कीर्ति का सतत सृजन होता रहे। 34
निर्मल सेनकुल के नृप - मोक्तिकों की सरल
32. (बिना गांठ की) गूंथने की रोएंदार सूत्रलता ( ग्रन्थन की बरौनी अथवा भौंह वत्) यह प्रशस्तिमयी कृति पद (व्याकरण), पदार्थ (दर्शन) आदि के विचार से विशुद्ध मेधा वाले कवि उमापतिधर ने रची है। 35
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धर्म के प्रणाती (नाती का पुत्र), मनदास के नाती, बृहस्पती के पुत्र, राणकशूलपाणि ने इस प्रशस्ति को उत्कीर्ण किया, जो वारेन्द्रक (के) शिल्पियों की ( कारीगरों) की गोष्ठी (संघ) में सर्वश्रेष्ठ था। 36