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युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख
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भक्ति में लीन होकर स्वयं श्रीमान् लक्ष्मणराज ने भी श्रीवैद्यनाथ का मठ उस श्रेष्ठ तपस्वी को अर्पित किया। 57 मुनि ने श्री नौहलेश्वर मठ स्वीकृत तो कर लिया परन्तु पुनः अपने शिष्य सुचरितशाली अघोरशिव को प्रदान कर दिया। 58 तदनन्तर अपना करणीय सम्पन्न कर समर्थ चेदिनाथ हाथी-घोड़ों सहित
शक्तिशाली सामन्तों एवं पैदल (सेना) सहित अत्यंत मनोरम 23. पश्चिम दिशा की ओर रवाना हुआ जिसने शत्रुओं में भय उत्पन्न कर दिया
एवं जिसकी गति अबाध थी। 59 युद्ध के लिये, सुसज्जित (तैयार नृपों) पर (अपने) विकल्प के प्रहार से, विनत नृपों के द्वारा प्रदत्त उपहार से अपने आदेश (क्षेत्र) बढ़ाता हुआ याचकों की उनकी इच्छा के अनुरूप आशापूर्ण कर (उसने) अपनी सेना को सागर के जल से खेलने के लिए प्रवृत्त कर दिय। 60 सागर में स्नान कर श्रीमान् लक्ष्मणराज ने स्वर्णकमलों से धीरे-धीरे सोमेश्वर की पूजा की। तदनन्तर अन्य (वित्त) भी अर्पित किया। 61 जिसने कौशल के स्वमी को पराजित करने के पश्चात् ओड्र के राजा से रत्न
तथा स्वर्ण से निर्मित कालिय (नाग) से 24. सोमेश्वर की अर्चना की। एवं इस पर भी हाथी, घोड़े, शुभ्र वसन, माला,
चन्दन आदि देकर सांसारिक श्रम से शांति पाकर अत्यंत विनत होकर सन्तुष्ट हुआ तथा प्रभु (शिव) को (स्तुति से) प्रसन्न किया। 62 यहां जो कोई नृप संसार को असार मानता है, तब वह आपके चरणों में प्रणाम कर तत्त्व (ज्ञान) में निरत होने से तम से रहित हो जाता है। जन्म से रहित होने से विकृति के लिये वह पुनः श्रीमान् नहीं होता। इसलिये ध्यानलीन होकर उसने शिव की अर्चना में चित्त लगाया। 63 उससे महान् राजा श्री शंकरगण (तृतीय) हुआ जिसके अद्वितीय चरणों की शत्रुओं ने भी सेवा की। 64
उस दृढ़ साहसी के खड्ग का व्रत था-युद्ध में असंख्य शत्रुओं के 25. पक्षधारियों को नष्ट करने में लीन होना। लोगों को आनन्दित करते हुए सतत
दान देता था। रूप से अप्रतिम होने से कामदेव के उद्धत गर्व का अपहरण कर लिय। जिस नृप की विद्वानों ने सर्वत्र तथा सर्वदा स्तुति की। 65
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