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प्राचीन भारतीय अभिलेख
वह कदम्बगुहा सर्वमान्या थी जहां सिद्धों की परम्परा थी । उससे मुनीश्वर रुद्रशम्भु हुआ जो (सबका ) वन्दनीय था। 48
तत्त्वज्ञान के प्रभाव से महत्ताप्राप्त उसका जगत् में एक शिष्य मत्तमयूरनाथ था जिसने अवन्ति के नृप के सारे कलुष विलग कर उसे परम (शिव) तत्व की ओर उन्मुख कर दिया 49
20. उससे पृथ्वी का अलंकार श्री धर्मशम्भु हुआ जिसके चरणों की अर्चना नृपसिरों की मणियों की कान्ति से हुई, जो समुचित विमल तथा मनोरम कीर्तिशाली था तथा जिसने तप से शैवागम (शैव शास्त्र) के सागर को तैर कर पार कर लिया था। 50
उसके पश्चात् उसका शिष्य तपोराशि सदाशिव आया, जिसके वन्दनीय चरणयुगल नृपों के शिरोरत्न की किरणों से अर्चित हुए। 51
तदनन्तर माधुमतेय नामक तेजस्वी शिष्य हुआ जिसका भोजन फल तथा मूल ही था। अन्यत्र न जाते हुए तप तथा तेजा ने उसमें (स्थायी) निवास कर लिया था। 52
इसके पश्चात् वन्दनीयों में श्रेष्ठ उसका शिष्य चूडाशिव हुआ ।
21. जिस मुमुक्षु ने कर्मजाल के मल को समाप्त कर दिया था। 53
उसके शिष्य का नाम हृदयशिव था जो सारे गुणों का आकार था, जिसका आज भी प्रशंसनीय है, जिसके अद्वितीय वन्दनीय चरणों को नृपों के मुकुट में लगे रत्नों ने कमनीय बना दिया। 54
विद्या के आगार, मेधावी, सत्यव्रत तथा श्रीमान् माधुमतेय के (शिष्य) वंश को बढ़ाने वाले उस (हृदयशिव) ने सदा के लिये (अपनी) कीर्ति प्रवृद्ध कर ली। अधिक क्या कहा जाय-उसने अपनी क्षमा से पृथ्वी, समता से मेघ, मर्यादा से सागर तथा वैराग्य से भगवान् काम को जीत लिया। वह किसका प्रशंसापात्र नहीं बना? 55
अथवा उस मुनिराज की स्तुति क्यों न की जाय? जिसका चेदि के चन्द्र तुल्य राजा ने भी आदर किया- श्रेष्ठ दूतों के साथ उपहार प्रेषित कर विधिपूर्वक भक्ति प्रकट की। 56
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