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यशोवर्मदेव का नालन्दा शिलालेख
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17. सारे प्राणियों को जन्म-भय के सागर को तैर कर पार करने के लिये तथा
श्री सम्बोधि रूपी कल्पवृक्ष के विपुल फल पाने के लिये भी यह आनन्द दान दिया। 12
जब तक चन्द्र चमकता है, चमकती विपुल किरणों से युक्त 18. जगत् का दीपक सूर्य चमकता है, सागर से घिरी जब तक यह पृथ्वी है,
जब तक आकाश में अवकाश है, जब तक महान भुवनभार को धारण करते हुए भूधर हैं तब तक चन्द्र सी शुभ्र यह कीर्ति दिशाओं को उज्ज्वल करे।13 वज्रासनस्थ भगवान् बुद्ध जिसमें स्थित हैं ऐसे इस दान में प्रलय पर्यन्त जो
कोई बाधा डालेगा, जिस आज्ञा को शत्रुविनाशक सम्राट् बालादित्य ने जारी 20. किया, इसे भग्न करने वाला पञ्चानंतर्य (पाप) से युक्त होकर धर्महीन हो
जाएगा। 14 इस प्रकार शीलचन्द्र नामक प्रसिद्ध करणिक ने स्वामी के अप्रतिहत आदेश को स्वीकार कर अल्प मेधावी होने पर भी भार की परवाह न करते हुए इस सरल, उदार, तथा आकर्षक प्रशस्ति को त्वरा में रच डाला। क्या पंगू समुन्नत वृक्ष के शिखर के फल को ऊंचे हाथ कर प्राप्त करने की इच्छा नहीं करता? 15
1.
प्रांशुलभ्ये फले लोभादुबाहुरिव वामनः।
रघुवंश, 1/3
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