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प्राचीन भारतीय अभिलेख
14. वह दान में राधेय (कर्ण) था, वह वाणी की पवित्रता में पाण्डुतनय
(युधिष्ठिर) था। वीरता में पार्थ (अर्जुन) होने पर भी इसकी महिमाम की प्रसिद्धि कुछ और ही है। ये सब व्यतीत हो गये। क्या कहें? यदि पुनः यहाँ होते तथा अपने चरित में उतारते तो इसे देखकर अब लज्जा से झुक जाते। 24 चाहे उस त्रस्त के त्राता राजा के मनुष्यों के दु:ख के लिये शस्त्र ग्रहण हो,
चाहे सिद्ध के क्रीडापुष्प के सिंहासन के लिये कल्पतरु हो, कुबेर 15. अत्यंत अर्थवृद्धि से त्रस्त होकर आत्ममुखी विलासी हो जाय, तब ही उसके
मुख पर चन्द्र एव कमलवन की प्रीति के लिए दृष्टि का उत्सव हो। और इसकी समानतर कर सकेंगे। 25 जिसके सैन्यप्रयाण के समय उड़ती धूल से आकाश भर जाने पर स्वर्ग-गंगा के तट बँध गये तथा कान्ति छिप जाने से सूर्य दर्पण सा रमणीय हो गया। ऐरावत के द्वारा प्रसन्नता में मथने से आकाश में बादल देख हंस उत्कण्ठित हो उठे, शत्रुओं को बन्दी बनाकर उनसे विराम पा इन्द्र के सहस्र नयन भी उनींदे हो गये। 26
आपस में 16. क्रुद्ध हो गजयुद्ध में दन्त-दण्ड के आघात से उत्पन्न ज्वाला समूह से अनल
फैलने पर तथा प्रत्यञ्चा की तेज ध्वनि पर, रक्तपान कर, उत्तेजित हो रक्षा कर प्रमाद-ध्वनि से प्रसन्नता एवं रौद्र रूप से अट्टहास करने पर युद्ध क्षेत्र में भयभीत सी (जय) लक्ष्मी ने हड़बड़ा कर जिस धीर का आलिङ्गन कर लिया। 27 समुन्नत काजल के पर्वत के समान चलते हुए मत्त गजेन्द्र पर स्थित क्रोध करते भयंकर उस धनुर्धर ने याचकों (शरणागतों) की रक्षा प्रारम्भ की।
विख्यात नृप 17. शिरोभूषण को जिसके चरण कमल पर रखते थे तथा युद्ध में असंख्य सेना
वाले चेदिराज को निर्भयता से उसने बरबस जीत लिया। 28 दूरस्थ चन्द्रमा कान्तिमान होने पर भी शरीर से कलंक की छाया से कलुषित है तथा सुंदर अरविंद भी विकसित होने मैं पराधीनता के कष्ट से युक्त है परंतु इस मनोरम वृतान्त वाले नृप का किसी प्रकार मुख देखकर भयभीत शत्रु-स्त्रियां भी (प्रफुल्लित ही रहती हैं) 29
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